मंगलवार, 10 अक्तूबर 2017

जनवरी में वैष्णो देवी यात्रा..... भाग-3

जनवरी में वैष्णो देवी यात्रा..... भाग-3

सभी मित्रों को नमस्कार।

 अपनी वैष्णो देवी यात्रा का तीसरा भाग लेकर मैं आपके सामने हाजिर हूं। पिछले भाग में मैंने आपको बताया था कि हमने बाणगंगा के ठंडे पानी में स्नान किया, ओर चित्र आदि खींचे।

अब उससे आगे.....


               स्नान आदि करने के बाद हम यात्रा पूरी करने के लिए निकल पड़े। हम मुश्किल से 50 मीटर भी नहीं गए होंगे कि कुछ दुकानदार आवाज़ लगाकर हमे रोकने लगे...अरे भैया रुको!! अरे भैया रुको!! हमने बोला भाई! हमे कुछ नहीं लेना, लेकिन हमारे पीछे एक बंदा भागा भागा आ रहा था ओर हमे रुकने के लिए आवाज़ लगा रहा था। वह व्यक्ति केवल मात्र गमछे में था जो उसने लुंगी की तरह लपेट रखा था। वह आकर हमसे बोला कि भाई जी आप अपना बैग चेक करवाओ।  मैं बोला भाई पहले सांस ले ले और ये बता कि ऐसा क्या हो गया जो आप हमारे पीछे आरे हो भागते हुए??  तो उसने कहा कि जहां आपने अपना बैग रखा था, उसके पास मेरे कपड़े भी रखे थे और जब मैं नहाकर फारिग हुआ तो देखा कि मेरा मोबाइल मेरी जेब में नहीं है। मैने एक क्षण की देरी न करते हुए तुरन्त अपना बैग उसके हाथों में थमा दिया और कहा कि भाई जी जल्दी चेक करलो। उसने मेरे कपड़े इधर-उधर करके अच्छी तरह से बैग को चेक किया। बैग में उसका मोबाइल होता तो ही मिलता ना, जब था ही नहीं तो मिलेगा कहां से। खैर, जो हमारा फर्ज बनता था हमण्ड तो पूरा किया। उसकी चेकिंग करने के उपरांत मैंने उसे बोला कि भाई बैग में तो नहीं है, आप एक काम करो कि आप हमारी जेब भी चेक कर लो। उसने बोला कि नहीं नहीं भाई, नही नही भाई , आपने नही उठाया होगा। आप उठाते तो खुद चेक करने के लिए क्यों बोलते?? उसकी न के बावज़ूद भी हमने खुद ही उसे अपनी जेब चेक करवाई। मोबाइल उसमें भी नहीं था। तब वह व्यक्ति क्षमा मांग कर चला गया।  हम भी इस बात को भूल कर आगे को चल दिए।


              रास्ते में सब भक्त माता के जयकारे लगाते हुए आ-जा रहे थे। हम भी उनके जयकारों का जवाब जयकारों से देते हुए चले जा रहे थे। वैष्णो देवी के यात्रा मार्ग में खाने पीने की कोई भी समस्या नहीं है। पर यहां मुफ्त में भंडारे की व्यवस्था बिल्कुल भी नहीं है परंतु रास्ते में पैसे देकर आप कुछ भी, कभी भी, कहीं भी खा सकते हैं। अब चूंकि वैष्णो देवी जम्मू कश्मीर राज्य में है, तो जाहिर सी बात है कि आपको यहां हिमाचल व उत्तराखंड के मुकाबले महंगी चीज मिलेगी। मैने स्वयं अनुभव किया कि मैग्गी की प्लेट उत्तराखंड ओर  हिमाचल में आपको 30 रुपए में आसानी से उपलब्ध हो जाती है , परंतु जम्मू कश्मीर में वही प्लेट आपको 40 रुपयेी की देते हैं। कारण पूछो तो फिर वही घिसा-पिटा बहाना.... के भाई जी। पहाड़ी एरिया है, transport के खर्चे ज्यादा हो जाते हैं। आप तुलना करेंगे तो पाएंगे कि हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के कई सुदूरवर्ती इलाकों में अगर आपको मैग्गी मिल भी जायगी तो उसका रेट वहाँ 40 रुपये होगा, जो उस हिसाब से बिल्कुल जायज़ है। पर जम्मू कश्मीर में तो यातायात के साधन भी बहुत अच्छे हैं, ओर इतना दुर्गम इलाका भी नही है, फिर भी राम भरोसे सब कुछ चल ही रहा है।
खैर, हम तो अपनी यात्रा को जारी रखते हैं। बाण गंगा घाट पर स्नान के बाद हम चलते रहे। खाना पीना तो कुछ था ही नहीं, तो सिर्फ अपने सांस को सामान्य करने के लिए हम रुकते थे।  बीच में कहीं 2 मिनट बैठ गए,  नहीं तो चलते ही रहे। उसके बाद जहां हमने सबसे अधिक विश्राम किया ओर चाय पी,  वह स्थान था अर्धकुंवारी। मुझे बहुत अच्छी तरह याद है, उस समय मैं कोई 5 साल से भी कम उम्र का होऊँगा, जब मैं परिवार सहित माता वैष्णो देवी के दर्शन के लिए आया था। उस समय मैंने अर्धकुंवारी गुफा के दर्शन किए थे, जिसकी स्मृति आज भी मेरे मानस पटल पर जीवित है। उसके बाद से वैष्णो देवी की यह मेरी चौथी यात्रा थी, पर बीच की तीन यात्राओं में कभी भी अर्धकुंवारी के दर्शन नहीं हुए। इस यात्रा में भी नहीं होते, पर उस समय यहां एक रोमांचक घटना घटी।
 अर्धकुंवारी दर्शन के लिए जो पर्ची उपलब्ध रहती है, हमने वो पर्ची काउंटर पर जाकर कटवाई। पर अगर आप आज पर्ची कटवाते हो तो आपको कल दर्शन होंगे। यदि आप कल कटवाते हो तो आपको अगले दिन दर्शन होंगे। कहने का तात्पर्य है कि अर्धकुंवारी पर इतनी अधिक भीड़ रहती है कि आपका उसी दिन नंबर पड़ना  बहुत मुश्किल है। हम अपनी पर्ची कटवाकर नीचे आए। हम सोच रहे थे कि 1 कप चाय और पी ली जाए कि तभी एक व्यक्ति हमारे पास आया। वह पूछने लगा कि क्या हमने उसके साथियों को देखा है?? हमने कह दिया कि भाई नहीं, हमने तो नहीं देखा। तब अचानक से उसे उसके साथी मिल गए। उनके पास अर्धकुंवारी की जो पर्ची थी, वो उसी तारीख की ही थी, लेकिन उनकी ट्रेन उस दिन शाम की थी,तो उनका विचार गुफा के दर्शन नही करने का था। बातों बातों में मैंने भी जिक्र चलाया कि भाई, यहां तो इतनी भीड़ है कि माता के दर्शन के लिए नंबर भी नहीं लगता तो उसने कहा कि भाई! हम तो दर्शन नहीं कर पाएंगे, आप ऐसा करो मेरी पर्ची ले लो और आप लोग दर्शन कर लो। उसके पास 7 व्यक्तियों की पर्ची थी पर पर्ची 7 जनों की और हम 2 । हमने पर्ची लेकर उस व्यक्ति का बहुत-बहुत धन्यवाद किया और उसके उपरांत वह चला गया।

                तभी वहाँ हमें मुरादाबाद( U.P.) का रहने वाला एक ग्रुप मिला, जो पास में खड़ा हमारी बातें सुन रहा था। उस ग्रुप में 8 जने थे तो उनमे से एक आकर हमसे बोला कि भाई जी, हमारा भी कोई जुगाड़ हो सकता है क्या??  मैं बोला कि भाई क्यों नहीं हमारे पास 7 आदमियों की दर्शन पर्ची हैं और हम 2 हैं। आप लोग अगर चाहें, तो आ सकते हैं। उनमें से 5 लोग हमारे साथ वाली पर्ची में हमारे साथ जाने को तैयार हो गए। मैंने और दिवांशु ने अपना सामान लॉकर में जमा करवाया और दर्शन के लिए लाइन में लग गए। लगभग ढाई घंटे के बाद हम अर्धकुंवारी गुफा के मुहाने पर थे ओर मैं मन ही मन माँ का धन्यवाद कर रहा था मुझे दर्शन देने के लिए।


     अर्धकुमारी गुफा एक बहुत संकरी गुफा है, जिसमें से दर्शन करने वाले को रेंग-रेंग कर निकलना पड़ता है। यह गुफा कोई बहुत ज्यादा बड़ी तो नहीं है, लेकिन तंग बहुत है। मान्यता है कि जब श्रीधर के भंडारे से कन्या रूप धारी माँ दुर्गा अंतर्ध्यान हुई थी तो भैरव से बचने के लिए इसी गुफा में माता ने 9 महीने निवास किया था। गुफा के द्वार पर माँ ने लँगूर को प्रहरी बना कर खड़ा किया था। जब लँगूर को हरा कर भैरव गुफा में प्रवेश करने लगा, तो देवी दुर्गा ने अपने त्रिशूल के प्रहार से गुफा के पीछे के भाग को तोड़ा ओर वहां से निकल गईं।


हृदय की बीमारी वाले लोगों को इस गुफा में जाने से बचना चाहिए, क्योंकि बीच में एक जगह ऐसी आती हैं जहां गुफा बहुत सँकरी तो है ही, साथ मे थोड़ा ऊपर भी चढ़ना पड़ता है। गुफा के अंतिम भाग ( जहाँ माता ने त्रिशूल प्रहार किया था) वह बहुत तंग है, ऐसे में हृदय रोग वाले मरीजों को दिक्कत आ सकती है। खैर, हमने सही सलामत गुफा में दर्शन किए और अर्धकुमारी मंदिर से बाहर आ गए। दर्शन उपरांत हमने फटाफट locker से सामान निकाला क्योंकि हल्की हल्की बारिश पड़ने लगी थी। इस बारिश का मतलब था कि अगर हम भीग गए तो समझो बीमार हुए।
 अर्धकुंवारी दर्शन के लिए जो पर्ची उपलब्ध रहती है, हमने वो पर्ची काउंटर पर जाकर कटवाई। पर अगर आप आज पर्ची कटवाते हो तो आपको कल दर्शन होंगे। यदि आप कल कटवाते हो तो आपको अगले दिन दर्शन होंगे। कहने का तात्पर्य है कि अर्धकुंवारी पर इतनी अधिक भीड़ रहती है कि आपका उसी दिन नंबर पड़ना  बहुत मुश्किल है। हम अपनी पर्ची कटवाकर नीचे आए। हम सोच रहे थे कि 1 कप चाय और पी ली जाए कि तभी एक व्यक्ति हमारे पास आया। वह पूछने लगा कि क्या हमने उसके साथियों को देखा है?? हमने कह दिया कि भाई नहीं, हमने तो नहीं देखा। तब अचानक से उसे उसके साथी मिल गए। उनके पास अर्धकुंवारी की जो पर्ची थी, वो उसी तारीख की ही थी, लेकिन उनकी ट्रेन उस दिन शाम की थी,तो उनका विचार गुफा के दर्शन नही करने का था। बातों बातों में मैंने भी जिक्र चलाया कि भाई, यहां तो इतनी भीड़ है कि माता के दर्शन के लिए नंबर भी नहीं लगता तो उसने कहा कि भाई! हम तो दर्शन नहीं कर पाएंगे, आप ऐसा करो मेरी पर्ची ले लो और आप लोग दर्शन कर लो। उसके पास 7 व्यक्तियों की पर्ची थी पर पर्ची 7 जनों की और हम 2 । हमने पर्ची लेकर उस व्यक्ति का बहुत-बहुत धन्यवाद किया और उसके उपरांत वह चला गया।

                तभी वहाँ हमें मुरादाबाद( U.P.) का रहने वाला एक ग्रुप मिला, जो पास में खड़ा हमारी बातें सुन रहा था। उस ग्रुप में 8 जने थे तो उनमे से एक आकर हमसे बोला कि भाई जी, हमारा भी कोई जुगाड़ हो सकता है क्या??  मैं बोला कि भाई क्यों नहीं हमारे पास 7 आदमियों की दर्शन पर्ची हैं और हम 2 हैं। आप लोग अगर चाहें, तो आ सकते हैं। उनमें से 5 लोग हमारे साथ वाली पर्ची में हमारे साथ जाने को तैयार हो गए। मैंने और दिवांशु ने अपना सामान लॉकर में जमा करवाया और दर्शन के लिए लाइन में लग गए। लगभग ढाई घंटे के बाद हम अर्धकुंवारी गुफा के मुहाने पर थे ओर मैं मन ही मन माँ का धन्यवाद कर रहा था मुझे दर्शन देने के लिए।


     अर्धकुमारी गुफा एक बहुत संकरी गुफा है, जिसमें से दर्शन करने वाले को रेंग-रेंग कर निकलना पड़ता है। यह गुफा कोई बहुत ज्यादा बड़ी तो नहीं है, लेकिन तंग बहुत है। मान्यता है कि जब श्रीधर के भंडारे से कन्या रूप धारी माँ दुर्गा अंतर्ध्यान हुई थी तो भैरव से बचने के लिए इसी गुफा में माता ने 9 महीने निवास किया था। गुफा के द्वार पर माँ ने लँगूर को प्रहरी बना कर खड़ा किया था। जब लँगूर को हरा कर भैरव गुफा में प्रवेश करने लगा, तो देवी दुर्गा ने अपने त्रिशूल के प्रहार से गुफा के पीछे के भाग को तोड़ा ओर वहां से निकल गईं।


हृदय की बीमारी वाले लोगों को इस गुफा में जाने से बचना चाहिए, क्योंकि बीच में एक जगह ऐसी आती हैं जहां गुफा बहुत सँकरी तो है ही, साथ मे थोड़ा ऊपर भी चढ़ना पड़ता है। गुफा के अंतिम भाग ( जहाँ माता ने त्रिशूल प्रहार किया था) वह बहुत तंग है, ऐसे में हृदय रोग वाले मरीजों को दिक्कत आ सकती है। खैर, हमने सही सलामत गुफा में दर्शन किए और अर्धकुमारी मंदिर से बाहर आ गए। दर्शन उपरांत हमने फटाफट locker से सामान निकाला क्योंकि हल्की हल्की बारिश पड़ने लगी थी। इस बारिश का मतलब था कि अगर हम भीग गए तो समझो बीमार हुए।

शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2017

त्रिवेंद्रम से दिल्ली : एक रोमांचक रेल यात्रा




14 जून 2017 : आठ दिन से घूमते हुए अब यात्रा बिल्कुल अंतिम दौर में पहुंच चुकी थी। पद्मनाभ स्वामी मंदिर और कोवलम बीच से आने के बाद अब हमें वापसी की राह पकड़नी थी। तिरुवनंतपुरम् सेंट्रल स्टेशन से हमारी ट्रेन (ट्रेन संख्या 22633) दोपहर 2:15 पर थी। वैसे तो आम दिनों में इस ट्रेन को त्रिवेंद्रम से दिल्ली पहुंचने में 48 घंटे का समय लगता है पर माॅनसून के समय यही ट्रेन दिल्ली पहुंचाने में 52 का घंटे का समय लेती है। एक बजे तक हम लोगों ने सारा सामान पैक किया और खाने के लिए निकल पड़े और स्टेशन परिसर में ही बने फूड प्लाजा में खाना खाया और फिर वापस आकर सामान उठाकर प्लेटफार्म की तरफ चल पड़े। हमें प्लेटफाॅर्म पर पहुंचते पहुंचते 1:45 बज चुके थे। प्लेटफाॅर्म पर गया तो तो देखा कि ट्रेन पहले से ही खड़ी है और अधिकतर यात्री अपनी अपनी सीटों पर बैठ चुके हैं। जब हम अपनी सीट पर गए तो देखा कि कुछ लोग हमारी सीट पर भी कब्जा जमाए हुए हैं। अपनी सीट प्राप्त करने के लिए पहले तो उन लोगों से बहुत देर तक मुंह ठिठोली करनी पड़ी। इस सीट पर से हटाएं तो उस सीट पर बैठ जाएं, वहां से हटाएं तो फिर दूसरी पर। थक हार कर मुझे ये कहना पड़ा कि इस कूपे की सारी सीटें मेरी है। 4 लोगों में से 3 लोग तो आराम से निकल लिए पर चाौथे ने जिद पकड़ रखी थी नहीं जाने की और हमारी भी जिद थी हटाने की, लेकिन फिर हमने सोचा कि चलिए कुछ देर बैठने ही देते हैं फिर देखा जाएगा। इसी दौरान उन महाशय ने ये कह दिया कि क्या आपने ट्रेन खरीद लिया है और इसी बात की जिद से हमने भी उनको सीट से हटा कर ही दम लिया। अपनी ही जगह के लिए इतनी मशक्कत इस यात्रा में पहली ही बार हुआ। खैर मुझे सीट मिल गई और वो भाई साहब कहीं और जाकर बैठ गए।


ट्रेन तिरुवनंतपुरम् सेंट्रल से अपने निर्धारित समय 2:15 पर चल पड़ी। कुछ ही देर में ट्रेन त्रिवेंद्रम शहर के बाहर निकल गई। रेलवे लाइन के दोनों तरफ दूर दूर तक हरे-भरे केले और नारियल के पेड़ के अलावा कुछ और भी दिखाई नहीं दे रहा था। करीब 40 मिनट के सफर के बाद हम कोल्लम जंक्शन स्टेशन पहुंच गए। यहां ट्रेन कुछ देर के लिए रुकी फिर आगे चल पड़ी। जैसा कि केरल के बारे में सुना था वैसी ही खूबसरती रास्ते में दिख रही थी। दूर दूर तक हरियाली के सिवा कुछ भी नहीं था और उसके ऊपर से इस समय यहां माॅनसून का समय था जिससे इस खूबसरती में चार चांद लगा हुआ था। कोल्लम के बाद ट्रेन का अगला पड़ाव कायकुलम था और हम कायकुलम भी समयानुसार ही पहुंच गए। ट्रेन के यहां से चलने के बाद हल्की-हल्की बूंदा-बांदी आरंभ हो चुकी थी जो ट्रेन के सफर की तरह कभी तेज तो कभी कम हो रही थी। ऐसे ही बरसात में ट्रेन अपनी गति से चली जा रही थी और करीब चार घंटे के सफर के बाद हम एरनाकुलम पहुंच गए। एरनाकुलम के बाद शाम ने अपनी दस्तक देनी शुरू कर दी थी जिससे कुछ देर बाद रात्रि के आगमन का आभास होने लगा था। एरनाकुलम के बाद ट्रेन अलुवा नाम के एक छोटे से स्टेशन पर रुकी और हमने यहां प्लेटफार्म पर खाने का सामान बिकता देख तुरंत ही सब लोगों के लिए खाना ले लिया क्योंकि ट्रेन में पेंट्री कार नहीं थी। यहां से ट्रेन के खुलने के बाद हम लोगों ने खाना खाया और सोने की तैयारी करने लगे, इतने में ही थ्रिसूर स्टेशन आ गई।थ्रिसूर से ट्रेन के चलने के तुरंत बाद हम लोग सो गए। इतने दिन की सफर की थकान में नींद ऐसी आई कि कोजीकोड, कन्नूर और मंगलोर से ट्रेन कब गुजर कुछ पता ही नहीं चला और सुबह के करीब चार बजे से जब नींद खुली तो ट्रेन उडुपी स्टेशन पर खड़ी थी। कुछ ही मिनटों में ट्रेन उडूपी को अलविदा कहती हुई अपने अगले पड़ाव कारवार के लिए चल पड़ी जो उडूपी से 190 किलोमीटर दूर थी। कल शाम होने से पहले जो बरसात आरंभ हुई थी वो अभी तक वैसे ही लगातार हो रही थी और रात होने के कारण हम बरसात का लुत्फ उठाने से वंचित रह गए। उडूपी से ट्रेन के खुलने के बाद हम फिर से सो गए और एक ही बार सुबह होने पर ही उठे और उठते ही जो नजारा दिखा उसे देखकर हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। इस समय हम पश्चिमी घाट से गुजर रहे थे उसमें भी बरसात के मौसम में। हर तरफ दूर दूर तक बस हरियाली ही दिख रही थी। जहां तक नजर जा रही थी बस बरसात और दूर पहाड़ों पर काले बादलों का बसेरा।

15 जून 2017 : करीब 7:30 बजे हमारी ट्रेन कारवार स्टेशन पहुंच गई और बरसात अभी भी जारी थी। कारवार के पास से ही एक नदी गुजरती है जिसका नाम काली नदी है। यह कर्नाटक की एक प्रमुख नदी है। इस नदी का उद्गम स्थल पश्चिमी घाट में है और यह पश्चिम की ओर बहती हुई कारवार के पास अरब सागर में मिल जाती है। यह नदी मुख्यतः उत्तरी कनार जिले से होकर बहती है। इस नदी की सहायक नदियाँ ऊपरी कनेरी और तत्थीहल्ला हैं। कारवार पहुंचते ही सबसे पहले हमने यहां कुछ खाने की तलाश करना शुरू किया तो स्टेशन पर बड़ा-पाव के अलावा और कुछ भी नहीं मिल रहा था। बड़ा-पाव लेकर हम फिर वापस ट्रेन में बैठ गए। यहां से ट्रेन चलने के बाद अगला पड़ाव मडगांव था। अब मडगांव का नाम सुनकर किसका मन नहीं करेगा यहां घूमने का। मडगांव गोआ का ही एक स्टेशन है। ट्रेन से गोआ जाने वाले कुछ लोग तो वास्को-डा-गामा स्टेशन पर उतरते हैं और कुछ लोग मडगांव स्टेशन। 

ऐसे ही हम गोआ के खयालों में खोए हुए चले जा रहे थे। फिर न जाने मेरे मन में क्या सूझा कि मैंने कंचन से ऐसे ही चिढ़ाने के अंदाज में पूछ लिया कि ऐसा करो आप लोग दिल्ली चले जाओ और मैं एक दिन गोआ घूमकर दिल्ली आ जाऊंगा। इस बात को बोलते समय तो हमने यही सोचा कि मुझ पर कुछ कर्ण-भेदी वाण चलाए जाएंगे पर हुआ इसका उल्टा ही। उन्होंने इस बात के लिए हामी भर दी कि ठीक है हम लोग चले जाएंगे और आप यही उतर जाइएगा क्योंकि उनको भी पता था कि परिवार को बीच रास्ते में तो कोई छोड़ ही नहीं सकता, तो हां कहने में भी कोई गलती नहीं है। ऐसे ही बातों बातों में कब मडगांव आ गया कुछ पता ही नहीं चला, घड़ी पर नजर डाली तो 10 बज चुके थे। अब गोआ घूमने तो जा नहीं सकते तो कम से कम ट्रेन के रुकने पर मडगांव स्टेशन पर तो घूमा ही जा सकता है, तो जैसे ही ट्रेन रुकी हम अपना कैमरा लेकर ट्रेन से बाहर आ गए और कुछ फोटो लेते हुए ऐसे ही स्टेशन का मुआयना करने लगे। ट्रेन यहां करीब आधे घंटे खड़ी रही और अपने समय से 15 मिनट की देरी से ठीक 10:30 बजे यहां से आगे के लिए चल पड़ी।

मडगांव से चलने के बाद ट्रेन एक बड़ी सी नदी को पार कर रही थी जिसका नाम मंडोवी नदी था। इसके कई और नाम हैं जैसे मांडवी, मांडोवी, महादायी या महादेई तथा कुछ स्थानों पर गोमती नदी के नाम से भी जाना जाता है। यह कर्नाटक और गोवा से होकर बहती है। यह नदी गोवा राज्य की एक प्रमुख नदी है और इसे गोवा राज्य की जीवन रेखा भी कहा गया है। इसकी कुल लंबाई 77 किलोमीटर है जिसमें से 29 किलोमीटर कर्नाटक और 52 किलोमीटर गोवा से होकर बहती है। इस नदी का उद्गम पश्चिमी घाट के तीस सोतों के एक समूह से होता है जो कर्नाटक के बेलगाम जिले के भीमगढ़ में स्थित हैं। नदी का जलग्रहण क्षेत्र कर्नाटक में 2032 वर्ग किमी और गोवा में 1580 वर्ग किमी का है। दूधसागर प्रपात और वज्रपोहा प्रपात इस नदी के ही भाग हैं।

एक तो पश्चिमी घाट और कोंकण रेलवे का सफर ऐसे ही रोमांचक होता है और यदि उसके उपर से बरसात हो रही हो तो ये ट्रेन का सफर केवल रेल यात्रा न होकर एक तरह से स्वर्ग का ही सफर हो जाता है। ऊंची ऊंची पहाडि़यां, दूर दूर तक हरियाली, न जाने कितनी सुरंगों से होकर गुजरती हुई ट्रेन और इसके बाद यदि इस सफर में बरसात हो रही तो सफर का आनंद कई गुना बढ़ जाता है। पहाड़ों से गिरते झरने इस सफर को और भी रोमांचित बना देते हैं। कभी कोंकण रेलवे के बारे में टीवी और अखबारों में देखा और पढ़ा करता था जो आज खुली आंखों से हमारे सामने था। यदि मैं अपने शब्दों में कहूं तो अब की गई सभी रेल यात्राओं में हमने जितना आनंद नहीं उठाया होगा उससे ज्यादा केवल इसी एक यात्रा में आनंद आया। चलिए अब आगे की बात करते हैं। 

मडगांव के बाद ट्रेन अपने अगले स्टेशन पेरणेम पर कुछ देर रुकी और फिर सिंधुदुर्ग के लिए रवाना हो गई। समूचे रास्ते ऐसे ही लगातार बरसात होती रही। जहां भी ट्रेन कुछ मिनट के लिए रुकती हम झट ट्रेन से बाहर उस बरसात का मजा लेने में व्यस्त हो जाते। यहां एक बात और बताना चाहूंगा वो ये कि इस ट्रेन का टिकट हमने मजबूरी में लिया था, क्योंकि केरला एक्सप्रेस में टिकट मिल नहीं रहा था। जब हमने इस ट्रेन का टिकट लिया था तो हमें ये नहीं पता था कि यही रेल यात्रा मेरे जीवन की सबसे अनोखी और रोमांचक ट्रेन यात्रा होगी, क्योंकि इस ट्रेन से सफर तो पूरे साल में कभी भी किया जा सकता है पर ऐसे दृश्य देखने को हर सफर में नहीं मिलता। कोंकाण रेलवे में दिन का सफर और उसके उपर से बरसात मिलेगी या नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है। ट्रेन चली जा रही थी और हम इन दृश्यों में खोए हुए बस रास्तों को निहारते हुए जा रहे थे और हम कब सिंधुदुर्ग पहुंच गए पता ही नहीं चला। घड़ी देखा तो दोपहर के एक बज चुके थे। मतलब कि हमने लगभग 23 का घंटा सफर हमने पूरा कर लिया था। सिंधुदुर्ग संस्कृत के दो शब्दों सिंधु (समुद्र) और दुर्ग (किला) से मिलकर बना है जिसका अर्थ है समुद्र का किला। इसकी स्थापना शिवाजी ने सन् 1664 में मालवन तालुका के किनारे अरब सागर के एक द्वीप पर किया था। 

सिंधु दुर्ग से ट्रेन के चलने के बाद करीब दो घंटे बाद हम रत्नागिरी पहुंचे। त्रिवेंद्रम से रत्नागिरी तक के 1250 किलोमीटर के सफर को पूरा करने में अब तब 25 घंटे लग चुके थे। रत्नागिरी बाल गंगाधर तिलक की जन्मस्थली है। यह महाराष्ट्र के दक्षिण-पश्चिम भाग में अरब सागर के तट पर स्थित है और यह कोंकण क्षेत्र का ही एक भाग है तथा यह पश्चिम में सहयाद्रि पर्वतमाला से घिरा हुआ है। रत्नागिरि प्रसिद्ध अल्फांसो आम के लिए भी जाना जाता है। कुछ संदर्भां के अनुसार रत्नागिरि का एक संबंध महाभारत काल से भी है। कहा जाता है पांडवों ने अपने वनवास का तेरहवां वर्ष रत्नागिरि के आस पास ही बिताया था। यही वो जगह है जहां कभी म्यांमार के अंतिम राजा थिबू तथा वीर सावरकर को कैद कर रखा गया था।

रत्नागिरी के बाद हमारी ट्रेन का अगला पड़ाव चिपलूण नामक जगह था। चिपलुन एक पिकनिक स्थल के रूप में प्रसिद्ध है। इसके पिकनिक स्थल के रूप में विकसित होने के पीछे भी बहुत ही रोचक बात जुड़ी हुई है। ऐसा था कि 80 के दशक में मुंबई से गोवा जाने के लिए प्रतिदिन उड़ाने संचालित नहीं होती थी। उस समय सप्ताह में एक या दो उड़ाने संचालित होती थी। इसलिए पर्यटकों ने सड़क मार्ग द्वारा गोवा जाना आरंभ कर दिया। लेकिन यह रास्ता काफी लंबा पड़ता था। इसलिए रास्ते में एक ऐसे स्थान की जरुरत महसूस की गई जहां पर्यटक आराम कर सकें। ऐसे स्थान को चुनने के लिए होटल ताज ग्रुप ने समाचारपत्रों में विज्ञापन दिया और पर्यटकों से विभिन्न स्थानों के लिए वोटिंग करने को कहा। वोटिंग में 80 प्रतिशत दर्शकों ने चिपलुन के पक्ष में मतदान किया। इस प्रकार एक पर्यटक स्थल के रूप में चिपलुन का जन्म हुआ।

चिपलून के बाद हमारा अगला पड़ाव पनवेल था। ट्रेन हरी भरी वादियों में बहुत सारे सुरंगों से होकर सरपट चली जा रही थी। पनवेल पहुंचने से पहले हमारे व्हाट्स एप और फेसबुक ग्रुप घुमक्कड़ी दिल से के सदस्यों ने हमारी खोज खबर ली कि हम कहां तक पहुंचे तो हमने रत्नागिरी और पनवेल के बीच होने की बात बता दी और बात यहीं खत्म हो गई। कुछ देर बाद ग्रुप के ही एक और घुमक्कड़ सदस्य प्रतीक गांधी ने हमसे केवल इतना ही पूछा कि आपकी ट्रेन पनवेल के बाद किस रास्ते से जाएगी तो हमने पनवेल के बाद वसई रोड स्टेशन का नाम बता दिया। उसके बाद उनका जवाब आया कि हम आएंगे आपसे मिलने। अब देखने के लिए ये एक बिल्कुल छोटा सा मैसेज था पर इस मैसेज के अंदर जो भाव था उस भाव को या तो केवल भेजने वाला या प्राप्त करने वाला ही समझ सकता था। मैंने कंचन को इस बारे में बताया कि एक घुमक्कड़ मित्र हैं, जो मिलने आएंगे। इस बात से वो भी आश्चर्यचकित हो गई। ट्रेन चलती रही और हम पनवेल पहुंच गए। पनवेल से रात 8:45 पर ट्रेन चली और दो घंटे का सफर पूरा करके ठीक दस बजे हमारी ट्रेन वसई रोड पहुंच गई।

जैसा कि प्रतीक गांधी से पहले ही बात हो गई थी कि वो प्लेटफाॅर्म पर आ चुके हैं। मैं भी ट्रेन के रुकने से पहले ही कंचन को साथ में लेकर ट्रेन के दरवाजे के पास आकर खड़े हो गया। ट्रेन के रुकते ही हम जल्दी से ट्रेन से उतरे। मुझे देखते ही प्रतीक जी ने हाथ उपर उठाकर अपनी उपस्थिति का अहसास कराया। ट्रेन से उतर कर उनके पास पहुंचे तो देखा कि प्रतीक भाई के साथ हम घुमक्कड़ों की बुआ दर्शन कौर धनोय भी मुझसे मिलने आई हुई थीं। अब थोड़ा दर्शन कौर के बारे में। दर्शन कौर जी भी एक बहुत बड़ी घुमक्कड़ हैं और घुमक्कड़ी की दुनिया में उनको बुआ का दर्जा प्राप्त है। पहले तो मैं और कंचन दोनों ने बुआ के पैर छूकर आशीर्वाद लिया उसके बाद प्रतीक भाई से भी गले मिला। फिर कुछ फोटो लेने के बाद कुछ आपस में बातें की गई और इतनी देर में ट्रेन के खुलने का समय हो गया। दुबारा फिर से मिलने की बात कहकर नम आंखों से हमने उन दोनों से विदाई ली तब तक ट्रेन खुल चुकी थी। हम ट्रेन में चढ़े और अपनी सीट पर आकर बैठ गए। जाने से पहले बुआ जी ने मेरे हाथ में लडडु का एक डिब्बा दे दिया था। उस डिब्बे में जितने लडडू थे वो तो खत्म हो गए पर उन लडडुओं में जो मिठास थी तो सदा सदा के लिए मेरे मन में बस गई। जब आभासी दुनिया के कुछ लोग वास्तविक दुनिया में मिलते हैं तो उसका वर्णन करने के लिए किसी के पास कोई शब्द नहीं होता है और हमारी मुलाकात भी ऐसे ही हुई। जिन लोगों के बारे में कुछ पता नहीं था, वो लोग इतने प्यार से इतनी रात में अपने घर से दूर स्टेशन पर मुझसे मिलने आए। वसई रोड से ट्रेन के खुलते ही हम सब अपनी अपनी बर्थ पर सो गए। नींद इतनी गहरी आई कि कब सूरत और बड़ौदा गुजर गया पता ही नहीं चला और उस शहर को चाहे स्टेशन ही सही देखने की तमन्ना भी नींद के साथ ही गुजर गई। 

16 जून 2017 : सुबह में करीब 6 बजे के आसपास जब नींद खुली तो ट्रेन बड़ौदा और रतलाम के बीच थी जो धीरे धीरे अपनी गति से रतलाम की ओर बढ़ रही थी। रात में सोने से पहले सफर में हम जो बरसात और हरियाली देख रहे थे उस चीज का इधर नामोनिशान नहीं था। इसी तरह चलते हुए करीब 7:30 बजे हम रतलाम पहुंच गए। 15 मिनट रुकने के बाद ट्रेन अगले पड़ाव कोटा की तरफ चल पड़ी। जैसे जैसे दिन चढ़ रहा था वैसे वैसे सूर्य की तपिश भी बढ़ती जा रही थी। करीब साढ़े तीन घंटे के सफर के बाद 11:15 बजे हम कोटा पहुंच गए। यहां तक पहुंचते पहुंचते दिल्ली वाली गर्मी का अहसास होने लगा था। कोटा स्टेशन पर ट्रेन के रुकते ही हमने कुछ खाने का सामान लिया और फिर वापस अपने सीट पर बैठ गए। ट्रेन के यहां से खुलते ही हम लोगों ने खाना खाया और फिर कुछ देर आराम करने के लिए बर्थ लगाकर सो गए। कुछ देर बाद नींद खुली तो हम सवाई माधोपुर पहुंच चुके थे। कुछ देर बाद यहां से ट्रेन खुली और अगले पड़ाव भरतपुर के लिए चल पड़ी। जो हरे भरे नजारे हमें कल पूरे दिन देखने के लिए मिला इधर दूर दूर तक उनका कोई नामोनिशान नहीं था। दूर दूर तक बंजर पड़े खेत और पहाड़ और उसके उपर से चिलचिलाती धूप। यही तो अपनी भारत भूमि है जो एक ही दिन में हर तरह के नजारे देखने को मिलते हैं। कहीं गर्मी, कहीं सर्दी, कहीं बर्फ तो कहीं बरसात। ट्रेन चलती रही और ठीक 3 बजे हम भरतपुर पहुंच गए। भरतपुर के बाद हमारा अगला पड़ाव मथुरा था। ट्रेन भरतपुर से खुली और एक घंटे के सफर के बाद हम मथुरा पहुंच गए। कुछ देर मथुरा में रुकने के बाद हमारी ट्रेन अपने गंतव्य स्टेशन हजरत निजामुद्दीन स्टेशन के लिए चल पड़ी और करीब 2 घंटे के सफर के बाद अपने निर्धारित समय से 20 मिनट पहलेे 6 बजे ही हजरत निजामुद्दीन पहुंच गए और यहां से आॅटो लेकर घर की तरफ प्रस्थान कर गए। इस रोमांचक ट्रेन यात्रा में हमने कुल 3007 किलोमीटर का सफर तय किया जिसे पूरा करने में करीब 52 घंटे का समय लगा। सच कहूं तो ये ट्रेन यात्रा हमारे जीवन की सबसे अनूठी और रोमांचक यात्रा रही और मुझे नहीं लगता कि आगे भविष्य में कभी ऐसी रोमांचक ट्रेन यात्रा कर पाउंगा। यदि कर भी लिया तो पूरे परिवार के साथ नहीं होउंगा तो वो आनंद नहीं रह जाएगा जो इस यात्रा में आया। कुछ खट्टे मीठे अनुभव के साथ हमारी 10 दिन की यह यात्रा समाप्त हुई। अब हम आपसे आज्ञा चाहते हैं और जल्दी ही एक दूसरे यात्रा वृत्तांत के साथ सामने आपके सामने आऊंगा। तक तक के लिए आज्ञा दीजिए।

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

कोच्चि के लिए दूसरी फ्लाइट

 एयरपोर्ट की भागमभाग में लगेज भूलना ,घर से दो घण्टे की लम्बी ड्राइव के बाद रायपुर से मुम्बई की पहली फ्लाइट, फिर दो घण्टे मुंबई एयरपोर्ट में इंतजार और कोच्चि के लिए दूसरी फ्लाइट । अंत में कोच्चि एयरपोर्ट से मुन्नार तक 5 घण्टे की लम्बी सड़क यात्रा । सुबह 6 बजे से लगातार सफर से रात 9 बजे होटल पहुँचते थककर चूर हो चुके थे । होटल के रेस्टोरेंट में डिनर ले कमरे में आते ही गहरी नींद में डूब गयी । शाम को देखे चियापारा जलप्रपात के धूम्र छीटें पूरी रात स्वप्न को भीगोते रहे । सुबह 6 बजे खिड़की पर लगा पर्दा खिसकाया । ऊँचाई से नीचे होटल की पार्किंग में रखी ढेरों गाड़ियां दिख रही थी । अरे गाड़ी के पास रिज़वी अभी से क्या कर रहा है ?? बाद में मालूम हुआ कि होटल की पार्किंग में लगी सभी गाड़िया पर्यटकों को घुमाने वाले ड्राइवर के मालिकों की है । 10 दिनों तक केरल के अलग अलग प्राकृतिक स्थानों को घुमाने वाले इन ड्राइवर्स का पूरा जीवन अपने परिवार से दूर गुजर जाता है ।
जिन खतरनाक रास्तों पर साँसे थामे हम सुरक्षित निकल आने की दुआ मांग रहे थे उन खतरों से ये रोज खेलते है । हर बार एक अजनबी परिवार के साथ दिन रात साथ रहते ये बंजारे ड्राइवर्स 10 दिन के लिए उस परिवार के सदस्य हो जाते है। भिन्न भिन्न पड़ाव पर हमपेशा ड्राइवर्स आपस में अक्सर मिलते रहते है । इनकी कार की सीट ही रात का बिस्तर होती है । मैने गाड़ी की डिक्की में रिज़वी का भी एक छोटा सूटकेस देखा था । सभी ड्राइवर्स घुटनों तक मुड़ी सफ़ेद लूँगी पहने अपनी गाड़ियां धोते मलयाली में हँसी मज़ाक कर रहे है । फोन पर चाय ऑर्डर कर कमरे की दूसरी दिशा में एक दरवाज़ा की तरफ़ बढ़ी । रात में थकान से कमरे में आते ही बिस्तर पर धम्म वाली हालत थी । इस दरवाज़े पर लगे पर्दे की वज़ह से ध्यान भी नही गया था। पर्दा हटाकर दरवाज़ा खोला और सचमुच चीख पड़ी ....ओह नो ,ओह्ह नो ..माय गॉड .. खिड़की से सटे पहाड़ पर चाय बागान से आच्छादित मखमली गुदाज़ कालीन बिछी थी ।
रात के अंधेरे में हम इसी रास्ते से आये थे लेकिन अंधेरा होने की वजह से इस अद्भुत नजारे से वंचित रह गए थे । मैंने पहली बार चाय बागान देखे । सफेद उड़ते बादलों से थपकियाँ लेता चाय बागानों वाला पहाड़ । मेरी हाय हाय से पतिदेव की नींद खुल गयी -- ये तुम्हारा अच्छा है खुद की नींद खुल जाए तो दूसरों का सोना हराम कर दो । मैंने लगभग हाथ खींचते हुए कहा -- चाय बागान से आपके लिए चाय आर्डर किया है । बस कमरे में आती ही होगी ।
आपके लिए केरल यात्रा का ये लेख लिखते वक़्त भी लग रहा है कि मैं वापस अपने घर में हूँ और मुन्नार के ऊँचे पहाड़ों पर बादलों की दौड़ा भागी के बीच वो चाय बागान वैसे ही चमचमा रहे होंगे । समझ नही आ रहा है कि जिन्होंने चाय के बागान नही देखे उनकों उस सौंदर्य की सटीक वयाख्या करने वाली शब्दशक्ति कहाँ से लाऊ, फिर भी कोशिश कर रही हूँ । कल्पना करिए कि कच्ची सुबह की भीनी भीनी महक में जहाँ तक नज़र जा रही है वहाँ तक पहाड़ तराश कर उकेरे चाय बागान फैले है । व्यवस्थित, समान ऊँचाई की चाय की घनी झाड़ियों की कंच हरी पत्तियाँ कोहरे में लिपटी धूप की बाट जोह रही है । क्षितिज से गलबहियाँ करते चाय बागान अपने रूप लावण्य से बेखबर अलमस्त दूर तक पसरे हुए है । पहाड़ के ऊबड़खाबड़ , असमतल रूप से रुष्ट किसी ने समतल हरे गलीचे से इन बुलंदियों को ढाँक दिया जैसे । सम्पूर्ण पहाड़ी ढाल पर चाय की सघन झाड़ियों के बीच थोड़े थोड़े अंतराल पर पहाड़ को गोलाई में लपेटती पगडंडियाँ । होटल की बालकनी से देखने पर लगता था कि पहाड़ों पर दूर दूर तक गुदगुदी हरी कालीन बीछी है जिस पर काली पगडंडियों की लकीरें है । चपल , चंचल बादलों के बेपरवाह कारवाँ अथखलियाँ करते घने बागानों में घुसपैठ कर रहे थे । अब तक चाय के लिए कमरे की काल बेल बज चुकी थी । सर्विस बॉय को चाय बालकनी की टेबल पर लगाने के लिए कह पतिदेव को आवाज़ दी -- चीयर्स ..हाट टी सिटींग इनसाइड अ कोल्ड टी गार्डन ।
इस बीच कान्हा जी भी आँख मलते पहुँच गए -- मम्मा आज बाहुबली के गाँव जाएंगे न ?? रिज़वी अंकल ने प्रॉमिस किया है । हम सभी इडली , सांभर , उत्तपम्म , डोसा , नारियल चटनी के नाश्ते के बाद 9 बजे तक तैयार हो चुके थे। कार में बैठते ही रिज़वी ने आज के आनन्द की घोषणा की -- तुमको माल्लुम है, आज हम चलेंगे मुन्नार के राजामलाई इराइकुलम नेशनल पार्क , मट्टुपेट्टी डेम , देवीकुलम नयनामक्कड़ और अटटुकाल वाटरफॉल । हे भगवान ! थोड़ा तो लिहाज़ किया होता इतने कठिन नाम बोलने से पहले । अंकल इन सब जगह में बाहुबली का गाँव कौन सा है ?? रिज़वी ने कान्हा की व्यग्रता देख सांत्वना दी -- चलेंगा न कानन । यू फिकर नाट । हमारी कार चाय बागानों के बीच लहराती सड़कों पर आगे बढ़ रही थी ।अब हम केरल के समुद्री इलाके से बहुत दूर हिल स्टेशन मुन्नार में थे जहाँ नारियल के समुद्रतटीय पेडों का नामो निशान न था । इन पहाड़ों पर घने और बेतरतीब जंगल खत्म हो चुके थे । यहाँ इंसानों के करीने से तराशे चाय बगीचों का एकछत्र आधिपत्य था । सड़क के दोनों तरफ विशाल पेडों पर अफ्रीकन ट्यूलिप के सिंदूरी फूलों के गुच्छे झूम रहे थे । इनके गहरे व चटक नारंगी रंग प्लास्टिक के नकली फूलों का आभास दे रहे थे । यू ही उग आए खरपतवारो पर भी गहरे जामुनी , नीले फूलों की छटा देखने लायक थी । हमारें शहरी गार्डन से अधिक फूल तो सड़क के दोनों तरफ की बेल और पेड़ों पर थे शायद इसलिए ही केरल में भिन्न भिन्न रंग के फूलों की रंगोली बनती है और महिलाएँ भी फूलों का शृंगार करती है ।
. यत्र तत्र फूलों से अटी पड़ी सड़के देख प्रकृति के सौतेले व्यवहार से शिकायत हुई । पटादी के फूलों से पेड़ लदे थे । चाय बागान की गझिन हरियाली में भी गुंजाइश निकाल झाड़ियों के बीच जमीन पर रेंगती नाज़ुक लताओं के जाल में छोटे छोटे पीले और गुलाबी रंग के असंख्य फूल परियों के देश से आये लगते थे । पारिझर के हथेली के आकार के कागज़ के खोमचों जैसे लम्बे गुलाबी फूल । दोपहर तक हम मलयाली नाम वाले "मट्टुपेट्टी डेम" पहुँच चुके थे । डेम कुछ खास आकर्षक नही था ।पर्यटकों को ध्यान में रख बोटिंग आदि की व्यवस्था थी । कान्हा जी को बोटिंग में पैडल मारने में लगने वाला पिछला श्रम याद था -- मम्मा मुझे बोटिंग में नही जाना । रतनपुर में पैडल मार मार के इतना थक गया था कि मन हो रहा था कि झील में कूद कर तैरकर बाहर आ जाऊ ।हम माँ बेटे का ध्यान ठेलों पर बिक रहे ताजा पाइन एप्पल स्लाइस और नारियल पानी पर था -- आओ रिज़वी आप भी पाइन एप्पल खाओ । रिज़वी ने झेंपते हुए मना कर दिया -- नई मैम अभी इधरी रसम-चावल खा लिया है मई (मैं) । आज में (मैं) बहुत परेशान हो गया ।मेरा फोन खराब हो गया ।आपका फोन देते तो थोड़ा फैमिली से बात करने का था । मेरी(मुझे) को फोन बिगड़ने के टेंशन हो गया । मैने पतिदेव को आवाज़ लगाई -- रिज़वी का फोन बिगड़ गया है। जरा देख लीजिए । पतिदेव की लैपटाप और मोबाइल में सिद्धहस्तता पर मुझे विश्वास था । फोन खोलने के 10 मिनिट के भीतर ही उन्होंने फोन ठीक कर उसके हाथ में थमा दिया -- रिज़वी खुशी से उछल पड़ा -- या लिल्हा । ओहो आपने तो मेरा फोन ठीक कर दिया। तुमको माल्लुम है, मेरा पूरा नम्बर था इसमें । मेरे को कितना टेंशन हो गया थी । रिज़वी ने मोबाइल में अपनी खूबसूरत पत्नी और बच्चें की तस्वीरें दिखाई । कान्हा के जितनी ही उम्र का उसका बेटा था । मेरा मन फिर बुझ गया यह जानकर कि दुनिया भर के बेगानों को केरल घुमाने वाला रिज़वी चाहकर भी अपने बच्चों को केरल नही घूमा पाया है । बातों ही बातों में पता चला कि 18 साल में शादी करने के बाद रिज़वी सऊदी अरब चला गया था । केरल में हर चौथा आदमी खाड़ी देशों में छोटी मोटी नौकरी करता है ।
रिज़वी वहाँ 10 साल गाढ़ी मेहनत की कमाई कर 6 साल पहले केरल लौटकर फर्नीचर का व्यवसाय शुरू किया था । अपने सरल स्वभाव की वजह से उधार के ग्राहकों ने धंधा डूबा दिया। पिछले चार साल से अपने मालिक की यह गाड़ी चलाकर परिवार का भरण पोषण कर रहा है । 9 लाख का बैंक लोन भी चुकाना है । सड़क पर नज़र जमाए स्टेरिंग घुमाते रिजवी ने फीकी हँसी के साथ कहा -- आदमी कुछ सोचता है मगर खुदा बन्दों के लिए कुछ और सोच के रखता है ।कहाँ में 6 नौकर रखा था कहाँ आज अपने मालिक का गाड़ी चला रहा हूँ । तुमकों माल्लुम ,में थोड़ा सा चालाक होता था तो आज आगे बढ़ गया होता अब तक । चलती कार में पल भर को उदासी पसर गयी ।मेरे पति ने शांत लहज़े में पूछा -- आगे बढ़ना किसको बोलते है रिज़वी ? बड़े बड़े बिजनेसमैन को गोली मार दी जाती है , कोई घाटे से आत्महत्या कर लेता है , किसी को पारिवारिक कलह है , कोई शरीर से लाचार हो गया है । जिंदगी की सबसे बड़ी सफलता खुश रहने की कला है ।तुम खुश हो या नही ? उलझे भावों में डूबे रिज़वी ने भंवर से उबर आने वाली सच्ची संतुष्टि के साथ कहा -- हाँ सर में खुश तो बहुत रहता हूँ । उदर सऊदी में था तो अपना देश बहोत याद आता था । वो लोग हम इंडियंस को सही ट्रीट नही करता ।इदर पैसा कम है मगर सर अपना जगह अपना होता है । ये घर पे मेरा बीवी और माँ का आपस में थोड़ा किटकिट रहता है बाकी खुदा ने मेरे मन में तसल्ली बहुत दिया है । देखो पइसा ऐसा चीज़ है कल मेरे पास था आज नही कल शायद फिर हो ।
माहौल फिर हल्का हो गया । "अब हम कहाँ जा रहे है ?" इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ रिज़वी के पास होता था । रिज़वी के मालिक ने रिज़वी को हमारे हर दिन के शेड्यूल का कई पन्नों वाला एक मोटा पत्रा थमा दिया था । डेम से मायूस लौटते देख रिज़वी ने कहा अब हम लोग बहोत सुन्दर जगह जा रहा है । मैंने थकी आवाज़ में कहा --तुम कही न ले जाओ बस इन पहाड़ों पर ही गाड़ी चलाते रहो। कितने सुन्दर है ये । मौसम में वो आद्रता थी कि पेडों के मोटे तनों पर काई की मोटी मख़मली परत चढ़ गई थी । पहाड़ों में हर थोड़ी दूर पर हरा पानी लिए बड़ी बड़ी झील की तश्तरियाँ रखी थी । शांत झील को घेरे हुए पहाड़ की बुलन्दी को भी चुनौती देते आकाश चूमते यूकेलीप्ट्स के सीधे खड़े पेड़ । वीरान पहाड़ों पर लटकती इक्का दुक्का झोपड़ियां। जाने कौन लोग होंगे जो इन घरों में रहते होंगे ?? वो जो टोकरा दीवार से लटक रहा है क्या उसमें चाय की पत्तियाँ तोड़ी जाती है ??
"मम्मा देखो ये केरल के लोग कितने बुरे है । इतनी सुंदर जगह में भी पहाड़ पर मैंने स्कूल देखा था ।"कार के भीतर ठहाकों की वजह कान्हा की समझ से परे था । घने जंगलों के तिलस्म में डूबे पहाड़ , खुले चाय बागानों की चादरों वाले बीछे पहाड़, काली चट्टानों पर रिसते झरनों वाले वनस्पतिरहित पथरीले पहाड़ , गोल्फ के हरे मैदान जैसे हाथियों की चारागाह वाले पहाड़ , लबरेज़ झील को अंजुली में सहेजे पहाड़ । लगातार रूप बदलते पहाड़ किसी मायावी नायिका से लग रहे थे |( शेष यात्रा कल)

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बैजनाथ महादेव, पालमपुर (हिमाचल प्रदेश)


बैजनाथ महादेव, पालमपुर (हिमाचल प्रदेश)
कैसे जाएँ : बैजनाथ जाने के लिए पहले तो आपको पठानकोट जाना होगा। पठानकोट से बैजनाथ के लिए डायरेक्ट बसें है और आप चाहे तो पठानकोट से काँगड़ा और उसके बाद काँगड़ा से बैजनाथ जा सकते हैं। अगर आप पूरे रास्ते ट्रेन से ही जाना चाहते हैं तो पठानकोट से जोगिन्दर नगर छोटी लाइन (काँगड़ा वैली ट्रेन) से जा सकते है। यहाँ बैजनाथ मंदिर नाम से ही स्टेशन है जो मंदिर से 1 किलोमीटर दूर है, यदि आप यहाँ उतरते है तो आपको ये 1 किलोमीटर का सफर चढ़ाई करके पूरी करनी होगी, तो इससे अच्छा आप पपरोला उतर जाएँ जाएँ तो मंदिर से 3 किलोमीटर पहले है। यहाँ से आप बस से चले जाये तो बिलकुल मंदिर के पास में ही उतारेगी।
कहाँ ठहरें : यहाँ ठहरने के लिए प्राइवेट गेस्ट हाउस और होटल तो है ही और इसके अलावा यहाँ मंदिर न्यास प्राधिकरण द्वारा संचालित गेस्ट हाउस है जो बहुत ही किफायती और अच्छी है।